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कविता

जिजीविषा

मुकेश कुमार


शून्य में विचरता है कोई आवारा शब्द
अंतहीन यात्राओं से वार्तालाप करते हुए।

किसी स्त्री की देह-गंध
फैलती है कस्तूरी सी
भूमंडल में
चहलकदमी करता एक मृग
देखता है अपनी नाभि
अनायास।

अखंड सपनों से भरी रातें
जागती रहती हैं अपनी आँखों में
मृदंग बजते हैं हृदय के बीचोंबीच
मधुयामिनी की स्मृतियाँ
मुस्कराती हैं मृत्यु-शैय्या पर।

कहीं दूर से सुनाई पड़ता है राग भैरव
प्रातः की पदचाप के साथ-साथ।

 


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